वाराणसी। शिव की नगरी काशी में गुरुवार को चैत्र नवरात्र की नवमी तिथि और श्रीरामनवमी की धूम है। कहीं पूजा-पाठ तो कहीं कुछ और आयोजन हो रहे हैं। मां जगदंबा और भगवान राम के मंदिरों में भक्तों और व्रती महिलाओं का तांता लगा हुआ है। आज वाराणसी में राम नवमी पर भजन-गायन कार्यक्रम, सुंदरकांड का पाठ, रामचरित मानस पाठ की पूर्णाहुति हो रही है। अभी तक कई कार्यक्रम और ध्वजा और शोभा यात्राएं निकल रहीं हैं। ऐसे में प्रभु श्री राम से जुड़े मानस मंदिर का जिक्र आज न किया जाएं ऐसा कैसे हो सकता है...

तुलसी मानस मंदिर का इतिहास

प्राचीन मंदिरों के शहर में तुलसी मानस मंदिर सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। इस मंदिर का हिंदू धर्म में बहुत ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व है क्योंकि प्राचीन हिंदू महाकाव्य रामचरितमानस मूल रूप से 16 वीं शताब्दी में हिंदू कवि-संत, समाज सुधारक और दार्शनिक गोस्वामी तुलसीदास द्वारा इस स्थान पर लिखा गया था। विक्रम सम्वत 1631 (1575 ईस्वी) में, तुलसीदास जी ने मंगलवार को रामनवमी दिवस (चैत्र महीने का नौवां दिन, जो श्री राम का जन्मदिन है) पर रामचरितमानस की रचना शुरू की। तुलसीदास ने स्वयं रामचरितमानस में इस तिथि को सत्यापित किया हैं। उन्होंने दो साल, सात महीने और छब्बीस दिनों में महाकाव्य की रचना की, और विक्रम पंचमी के दिन (उज्ज्वल आधे के पांचवें दिन) विक्रम सम्वत 1633 (1577 ईस्वी) में लेखन पूरा किया। आज रामनवमी के दिन हम मानस मंदिर के बारे में विस्तृत रुप से जानकारी प्राप्त करेंगे।


कहते हैं कि तुलसीदास ने वाराणसी आकर काशी विश्वनाथ मंदिर में शिव (विश्वनाथ) और पार्वती (अन्नपूर्णा) के समक्ष सर्वप्रथम रामचरितमानस का पाठ किया। एक प्रचलित किंवदंती यह है कि वाराणसी के ब्राह्मण, जो तुलसीदास के आलोचक थे, उन्होंने तुलसीदास के लेखन मूल्य का परीक्षण करने का निर्णय लिया। उनके द्वारा रामचरितमानस की एक पांडुलिपि रात में विश्वनाथ मंदिर के गर्भगृह में संस्कृत शास्त्रों के ढेर के नीचे रखी गई, और गर्भगृह के दरवाजे बंद कर दिए गये। सुबह जब गर्भगृह के दरवाजे खोले गए, तो रामचरितमानस ढेर के शीर्ष पर पाया गया और उसके ऊपर सत्यम शिवम सुंदरम (संस्कृत: सत्यं शिवं सुंदरम्, का शाब्दिक अर्थ "सत्य, शुभता, सौंदर्य") के रूप में शिव के हस्ताक्षर स्वरुप पांडुलिपि पर अंकित देखा गया था।

पारंपरिक खातों के अनुसार, वाराणसी के कुछ ब्राह्मण अभी भी संतुष्ट नहीं थे, और उन्होंने दो चोरों को पांडुलिपि चोरी करने के लिए भेजा। चोरों ने अँधेरे में तुलसीदास के आश्रम में घुसने की कोशिश की, लेकिन वहाँ दो गौण रंग के धनुषधारी पहरेदार उनसे भिड़ गये। चोरों का हृदय परिवर्तन हुआ और वे उन दोंनो पहरेदारों के बारे में पूछने के के लिए अगली सुबह तुलसीदास के पास आये। यह मानते हुए कि दोनों पहरेदार राम और लक्ष्मण के अलावा कोई नहीं हो सकते हैं, तुलसीदास को यह जानकर अत्यंत दुख हुआ कि प्रभु स्वयं रात में उनके घर की रखवाली कर रहे थे। उन्होंने रामचरितमानस की पांडुलिपि अपने मित्र टोडर मल (जोकि अकबर के वित्त मंत्री थे) को भेजी और अपना सारा धन दान कर दिया। चोर सुधर गए और राम के भक्त बन गए।


प्रसिद्ध हिंदू महाकाव्यों में से एक, रामायण मूल रूप से 500 और 100 ईसा पूर्व के बीच संस्कृत कवि वाल्मीकि द्वारा संस्कृत भाषा में लिखा गया था। संस्कृत भाषा में होने के कारण, यह महाकाव्य जनसाधारण के लिए सुलभ नहीं था। 16वीं शताब्दी में, गोस्वामी तुलसीदास ने रामायण को हिंदी भाषा की अवधी बोली में लिखा और अवधी संस्करण को रामचरितमानस (श्री राम के कर्मों की झील) कहा जाता है। सन 1964 ईस्वी में, सुर्का परिवार ने उसी स्थान पर एक मंदिर का निर्माण किया, जहाँ गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखा था। तुलसी मानस मंदिर, संकट मोचन मार्ग पर, दुर्गा कुंड से 250 मीटर दक्षिण में, संकट मोचन मंदिर से 700 मीटर उत्तर-पूर्व में और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से 1.3 किलोमीटर उत्तर में स्थित है।

लोगों का कहना है कि पहले यहां छोटा सा मंदिर हुआ करता था। सन 1964 में कलकत्ता के एक व्यापारी सेठ रतनलाल सुरेका ने तुलसी मानस मंदिर का निर्माण करवाया था। मंदिर का उद्घाटन भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने किया था। यहां पर मधुर स्वर में संगीतमय रामचरितमानस संकीर्तन गुंजायमान रहता है। यहां पर भगवान श्रीराम, माता सीता, लक्ष्मण और हनुमानजी की प्रतिमाएं हैं। इसके अलावा यहां एक तरफ माता अन्नपूर्णा और शिवजी तथा दूसरी तरफ भगवान सत्यनारायण का मंदिर भी है। इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसी स्थान पर तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना की थी, इसलिए इस तुलसी मानस मंदिर कहा जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मंदिर की भव्यता की तारीफ कर चुके हैं।

Vipin Singh

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