इस समय पूरा देश होली के रंग में सराबोर है। महादेव की नगरी काशी भी रंगों के त्योहार में मदमस्त है, यहां हर उत्सव, पर्व मेला व पूजा-अर्चना किसी न किसी देवी-देवता, यक्ष-गंधर्व, ग्राम देवों या कुल आराध्य के नाम समर्पित होता है। ठीक उसी तरह रंगों का त्योहार होली भी मां चौसट्ठी से जुड़ा हुआ है। मान्यता है कि चौसट्ठी देवी के चरणों में गुलाल चढ़ाए बगैर काशी में रंगोत्सव का त्योहार पूरा नहीं माना जाता है। दिन भर रंग खेलने के बाद काशीवासी मुट्ठी भर अबीर-गुलाल मां चौसठ्ठी देवी के चरणों में अर्पित करते हैं और तंत्र की देवी से मुक्ति की कामना करते हैं।

दशाश्वमेध घाट के पास स्थित माता का मंदिर होली की शाम को गुलाल-अबीर के रंग में रंग जाता है। पांच शताब्दियों से अधिक समय से काशीवासी रंग-फाग के बाद मां चौसठ्ठी देवी को गुलाल अर्पित करके धूलिवंदन के साथ ही दरबार को जगाते हैं।

जानिए पौराणिक मान्यता

पौराणिक मान्यता के अनुसार काशी के राजा दिवोदास ने जब अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया और बाबा विश्वनाथ को भी काशी से बाहर भेज दिया। काशी नगरी में वापस आने के लिए भगवान शिव ने कैलाश से पहले अष्ट भैरव व छप्पन विनायकों को काशी भेजा। इसके बाद 64 योगिनियां काशी पहुंचीं। बाबा विश्वनाथ जब दोबारा काशी पहुंचे तो उनकी ही कृपा से चौसठ योगिनियां चौसठ्ठी देवी के रूप में प्रतिष्ठित हुईं। चौसट्ठी देवी सिद्धपीठ को भी तंत्र पीठ की प्रतिष्ठा प्राप्त है।

श्री काशी विद्वत कर्मकांड परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष आचार्य अशोक द्विवेदी के इनुसार, चौसट्ठी देवी के चरणों में गुलाल चढ़ाए बगैर काशी में रंगोत्सव की पूर्णता ही नहीं मानी जाती है। पुराने समय में शहर ही नहीं गांव से भी लोग चौसठ्ठी देवी को गुलाल अर्पित करने आते थे। चौसठ्ठी देवी की यात्रा गाजे-बाजे के साथ निकलती थी। बदलते समय के साथ परंपरा तो नहीं बदली, लेकिन चौसठ्ठी यात्रा अब सीमित हो चुकी है।

काशी विश्वनाथ मंदिर न्यास के पं. दीपक मालवीय ने बताया कि चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को ही चौसठ्ठी देवी ने काशी में अपना स्थान ग्रहण किया था। काशी खंड में चौंसठ योगिनियों की कथा का वर्णन मिलता है। चौसठ्ठी घाट पर देवी के मंदिर में काल भैरव व एकदंत विनायक के साथ भद्र काली के सम्मुख चौसठ्ठी देवी विराजमान हैं।

Ankita Yaduvanshi

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