(राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की 115वीं जयंती 23 सितम्बर पर विशेष)

बेगूसराय, 22 सितम्बर (हि.स.)। सत्ताधारी दल में रहते हुए सार्वजनिक मंच से ''सदियों की ठण्डी बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है, दो राह समय के रथ का घघर्र नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है'' का सिंहनाद करने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जिंदा रहते तो 23 सितम्बर को अपनी 115वीं जयंती मनाते। प्रकृति के नियमानुकूल वे शशरीर भले ही नहीं हैं, लेकिन आज भी उनकी अनमोल कृति समाज का पथ प्रदर्शन कर रही है।

''हुंकार, रेणुका, रसवंती, सामधेनी, परशुराम की प्रतीक्षा और रश्मिरथी से लेकर कुरुक्षेत्र'' तक जैसे अनेक काव्य संग्रह के रचनाकार समर्थ कवि दिनकर का चरमोत्कर्ष ''उर्वशी'' महाकाव्य है। राष्ट्रीय चेतना के कवि दिनकर का लगातार एकांकी मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया। जबकि, वह समग्र विकास के विश्वासी थे। वे कला और विज्ञान दोनों के विकास में ही राष्ट्र का विकास देखते थे। दिनकर जैसे कवि अपने अतीत में भी गहराई से जाते हैं और भविष्य को भी वर्तमान की तरह साफ-साफ देखे हैं।

कभी भारत ज्ञान-विज्ञान की गरिमा के साथ विश्व गुरु था, बीच का दौर संक्रमण का रहा। लेकिन आज फिर भारत एश्वर्य के साथ पूरे विश्व में खड़ा हो रहा है। जिससे दिनकर की पंक्तियां सार्थक हो रही है ''एक हाथ में कमल एक में धर्म दीप्त विज्ञान, लेकर उठने वाला है धरती का हिंदुस्तान।'' दिनकर का द्वंदगीत बोध, चिंतन और सजग के संवाद की रचनात्मक प्रस्तुति है। जीवन के यथार्थ, व्यावहारिक सच और अनुभव के निष्कर्ष को दिनकर ने काव्य रूप दिया।

''हारे को हरिनाम'' तक आते-आते दिनकर का स्वर निराशा का नहीं, बल्कि आध्यात्म और भावुकता का हो जाता है। सहज, सरल और सुबोध कवि दिनकर अपनी रचनाओं में लय, रस और प्रवाह की त्रिवेणी बहाते हैं। कविता को कविता की शर्त पर स्वीकारने वाले दिनकर मनुष्यता के हिमायती और सघन संवेदना के कालजई कवि हैं। सबको समान अधिकार और सम्मान बात वह पूरे गर्व से कहते थे। दिनकर राष्ट्रीय संचेतना के ओजस्वी स्वर के साथ ही मनस्वी कवि थे।

शाश्वत मूल्य, चिंतन, सत्य और भावी स्वरूप, उनके चिंतन तथा सृजन में पूरी सजगता के साथ दिखता है। सच कहने का साहस, प्रतिरोध का पुरुष और जन पक्षधारिता दिनकर के काव्य में देखना प्रेरक है। सत्ता के साथ होकर भी सत्ता की विसंगतियों को देखकर दिनकर चुप नहीं बैठे थे। उनका कवि हृदय उन्हें प्रतिपक्ष की भूमिका के लिए विवश कर देता था। ''परशुराम की प्रतीक्षा'' हो या अन्य कविताओं में दिनकर ने सत्ता के गलियारे के छद्म और फरेब को ललकारते हुए उजागर किया।

सच में तो कवि आम आदमी का प्रतिनिधित्व करता है और उसकी प्रतिभा प्रतिपक्ष की भूमिका में ज्यादा खुलती-खिलती है। तभी जनतंत्र का खुला उद्घोष करते हुए राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा था ''सदियों की ठण्डी बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है, दो राह समय के रथ का घघर्र नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।'' चेतन के रूप में भारत के जड़ को भी दिनकर देखते और मानते रहे, उसको संवाद सक्षम बनाते रहे।

शांति और प्रेम में निष्ठा रखने वाले दिनकर, युद्ध और क्रांति से विमुख नहीं हुए। लेकिन शांति और प्रेम को जीवन जगत का सर्वश्रेष्ठ मापदंड एवं मूल्य मानते थे। काव्य कला की सबसे बड़ी कसौटी और मापदंड सत्यम शिवम सुंदरम का भाव प्रेम में ही पूर्णता के साथ पल्लवित-पुष्पित होता है, यह दिनकर दिखा गए। उनके काव्य में परशुराम का उग्र तेज है तो बुद्ध की विनम्रता भी है। उनकी रचना गतिशीलता से भरी हुई है तभी तो प्रेम की शक्ति प्रकट करते हुए दिनकर कहते हैं ''लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गीत प्रेम का गाता चल, नम होगी यह मिट्टी जरूर, आंसू के कण बरसता चल।''

दिनकर की रचनाधर्मिता में आग के साथ ही राग भी है। जहां उनका अग्नि धर्मा रुप राष्ट्रीयता के संदर्भ हमें अतीत गौरवगान तथा जागृति के स्वर में है। वहीं, उनका अन्तर्राग कोमल अनुभूतियां में ढ़लता हुआ स्त्री-पुरुष के प्रेम में भी निहित होता है। तभी तो ''उर्वशी'' प्रेम परक प्रकाष्ठा का महाकाव्य है। जिसमें उन्होंने कहा भी है ''उर्वशी, अपने समय का सूर्य हूं मैं।'' कलम को हथियार बनाने वाले दिनकर सौंदर्य और शक्ति, कला और विज्ञान, मेघा और शौर्य को जीवन के समग्र विकास के लिए संतुलित रूप में आत्मसात करने पर बल देते थे।

दिनकर मुंह में वेद और पीठ पर तरकश के वाहक-संवाहक परशुराम के वंशज थे। इसीलिए तो कहा था ''दो में तुम्हें क्या चाहिए कलम या कि तलवार, मन में ऊंचे भाव कि तन में शक्ति अजय अपार।'' दिनकर की रचनाधर्मिता में स्वामी विवेकानंद, अरविंद, महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, जयप्रकाश नारायण एवं राममनोहर लोहिया का चरित्र, आदर्श एवं सिद्धांत ध्वनित होता है। दिनकर साहित्य, संस्कृति, राष्ट्र और भावी पीढ़ी के एक ऐसे ऊर्जावान प्रहरी हैं, जो शब्द और अभिव्यक्ति की आंखों से पूरी सजगता के साथ समय को सुरक्षित करते हुए आने वाले समय को एकटक देख रहे थे।

प्रबंध काव्य ''रश्मिरथी'' लोक प्रचलित ऐसी लोकप्रिय कृति है, जिसे कोई भी समय विस्मृत नहीं कर सकता है। समरस समाज और मूल्यवान मनुष्य के निर्माण के लिए जो सूत्र इस कृति में है, वह अमृत से भरा हुआ है। जाति भेद के कारण सदियों से समाज में अपेक्षित कर्ण को पहली बार दिनकर के ''रश्मिरथी'' में योग्यता के आधार पर ऊंचे आसन पर आसान होने का अवसर मिला था।

अधिकतर लोग जानते हैं कि नेहरू ने दिनकर की प्रसिद्ध गद्य कृति ''संस्कृति के चार अध्याय'' की भूमिका लिखी है। लेकिन कम लोग ही यह जानते हैं कि दिनकर ने नेहरू को लोक देव की उपाधि देकर लोक देव नेहरू नाम की एक किताब लिखी थी। नेहरू के प्रति दिनकर के विचारों को 1955 में लिखे शांति की समस्या नामक लेख से समझा जा सकता है। जिसमें उन्होंने कहा है कि आने वाला विश्व सिकंदर और हिटलर का विश्व नहीं होगा। इसी लेख में उन्होंने पंचशील पर आधारित नेहरू की विदेश नीति का समर्थन करते हुए लिखा कि प्रत्येक देश की वैश्विक नीति उसके चरित्र की परछाई होती है।

1930 नमक सत्याग्रह के माध्यम से महात्मा गांधी ने ब्रिटिश हुकूमत पर भारी दबाव बनाया था। लेकिन उसके बाद जब 1931 में हुए गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने चले गए तो युवा हृदय कवि दिनकर ने गांधी से नाराज होकर 1933 में अपने ''हिमालय'' कविता में कह डाला ''अरे रोक युधिष्ठिर को न यहां जाने दे उसको स्वर्ग धीर पर फिर हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर।'' दिनकर स्वतंत्रता आंदोलन के धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक एवं समाजवादी मूल्य के रचनाकार लेखक थे।

यही मूल्य ''संस्कृति के चार अध्याय'' में उनके लेख की दृष्टि के रूप में प्रतिफलित हुई है। इस पुस्तक का सार रूप प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा है कि मेरी पुस्तक का विषय भारत की समसामयिक संस्कृति का जन्म और विकास है मेरी धारणा यह है कि भारत में जब आर्य और आर्येतर जातियों का मिलन हुआ, तब यही मिश्रित जनता भारत की बुनियादी जरूरत हुई। उसका मिश्रित संस्कार ही भारत का बुनियादी संस्कार हुआ। इस बुनियादी संस्कृति में पहली क्रांति महावीर और बुद्ध ने की।

इससे भारतीय संस्कृति के प्रति ना केवल उनके उदार दृष्टिकोण का पता चलता है, बल्कि इस बात का भी अंदाजा लग सकता कि वे कितने विशाल राष्ट्र की अवधारणा प्रस्तुत कर रहे थे। दिनकर की संपूर्ण काव्य यात्रा स्वतंत्रतापूर्व एवं स्वतंत्रोत्तर भारत की चुनौतियों की अभिव्यक्ति है। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने कलम के माध्यम से भागीदारी की और स्वतंत्रता की चेतना संपूर्ण देशवासियों के मन मस्तिष्क में भरी। ओज, श्रृंगार और जनपक्षता की जितनी कविताएं दिनकर ने लिखी है, उत्तर छायावाद के अन्य कवियों में ऐसी कविता का दर्शन दुर्लभ है।

उनकी प्रतिबद्धता हमेशा समाज के साथ और सत्ता के मुखालफत में रही। इसलिए उनकी कविता बृहद समाज के कंठ की मुखर आवाज बनी रही। दिनकर का किशोर मन बारदोली किसान आंदोलन से आंदोलनरत हो उठा और वह काव्य रचना में प्रवृत्त हुए। ''विजय संदेश'' नाम से प्रकाशित ''बारदोली विजय'' पुस्तक में बारदोली के किसानों को समर्पित दस गीत हैं। दिनकर के संपूर्ण काव्य में विरोचित ओज और अन्याय के प्रति जो बेहिचक प्रतिकार है, उसकी पृष्ठभूमि ''बारदोली विजय'' से स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है ''हसुआ खुरपी का असर देख लेना, निहत्थे जनों का समर देख लेना।''

वाजिब हक से दूर किसान के शोषण से उपजी आर्थिक विषमता की दारुण स्थिति को दिनकर ने ''हाहाकार'' में लिखा है कि ''वे भी यहीं, दूध से जो अपने स्वानों को नहलाते हैं, वे बच्चे भी यहीं कब्र में दूध-दूध जो चिल्लाते हैं।'' समय के गर्भ में पलने वाला संकट जब अपने अभिव्यक्ति का मार्ग ढूंढने लगता है तब साहित्य से क्रांति का मशाल जलाने वाले राष्ट्रकवि दिनकर जैसे राष्ट्र गौरव का आभिर्भाव होता है। गांधी और मार्क्स को लेकर दिनकर में एक खास तरह का द्वंद देखने को मिलता है।

हिंसा और अहिंसा के बीच का उनका द्वंद उनकी रचनाओं में भी दिखाई देता है। चीन-भारत युद्ध को केंद्र में रहकर दिनकर ने ''परशुराम की प्रतीक्षा'' लिखी थी। इसमें उन्होंने अपने तर्कों के आधार पर हिंसा और अहिंसा के इस्तेमाल के दर्शन को बेबाकी से परिभाषित किया। दिनकर ने खुले आम तौर पर यह भी स्वीकार किया कि वह जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटका कहते रहे हैं। इसलिए उजाले को लाल से मिलने पर जो रंग बनता है वहीं उनकी कविता का रंग है। लेकिन साहित्य के क्षेत्र में हुए ना तो गोयबेल्स की सत्ता को मानते हैं और ना ही स्टालिन की, जो उनकी उन्मुक्त धारा को प्रभावित कर सके।

14 मई 1957 को राज्यसभा में अपने भाषण में दिनकर ने कहा था ''कम्युनिस्ट देश के लेखकों और कवियों ने आखिरकार पाया तो क्या पाया। शारीरिक सुख और रुपया तो उन्होंने बहुत पाया, आराम तो उनको सबसे अधिक है। इनकम टैक्स की दरों में रियायतें रखी जाती। लेकिन इसके बदले में उनको देना क्या पड़ा, अपनी स्वाधीनता तक का हनन करना पड़ा है। रेजीमेंटेशन को स्वीकार करना पड़ा है। क्रांति हुए इतने दिन हो गए, बावजूद इसके साम्यवादी विचारधारा में दस्तोवस्की, तुर्गनेव, चेआव, टॉलस्टाय और गोर्की के समान लेखक क्यों नहीं पैदा हुए। यह लोग फिर पैदा हो ही नहीं सकते, क्योंकि मनुष्य की आत्मा को जहां स्वाधीनता नहीं है, वहां सच्चा साहित्य, कविता, कला और सच्चे विचार कभी पैदा नहीं हो सकते हैं।

वर्तमान स्थिति में जब राष्ट्रीयता और सहिष्णुता को लेकर बहस चलती है तो दोनों तरफ के नेता और विद्वान दिनकर को उद्धृत करते हुए उनके तर्कों को वैधता देने की कोशिश करते हैं। जबकि दिनकर ने साहित्य की अपरिहार्यता के साथ कहा था कि राजनीति जब-जब गिरती है, साहित्य उसे संभाल लेता है। लेकिन आज साहित्य और राजनीति में कहीं कोई तालमेल ही नहीं है। उन्होंने बहस में तटस्थ रहने वालों पर जोरदार प्रहार करते हुए लिखा था ''समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध।''

ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. चंद्रभानु प्रसाद सिंह कहते हैं कि ''दिनकर ने जीवन के संपूर्ण विस्तार को अपने साहित्य में समेटा है। लेकिन दिनकर में केवल ओज, उमंग और बवंडर नहीं है, बल्कि गंभीर चिंतन है। हिंदी साहित्य में चिंतक कवि में गोस्वामी तुलसीदास और जयशंकर प्रसाद के बाद तीसरा नाम रामधारी सिंह दिनकर का ही है। तभी तो रामचरित मानस के बाद सबसे अधिक दिनकर ही उद्धृत किए जाते हैं।''

हिन्दुस्थान समाचार/सुरेन्द्र/चंदा

Updated On 22 Sep 2023 7:57 PM GMT
Agency Feed

Agency Feed

Next Story