डॉ. रमेश ठाकुर

भारत में बाघ परियोजना मुहिम ने अपने 50 साल पूरे कर लिए । पूरे देश में कुल 53 टाइगर रिजर्व क्षेत्र हैं, लेकिन अफसोस इनमें कुछ बाघ रिजर्व क्षेत्र ऐसे हैं जहां एक भी बाघ नहीं हैं? ये हम नहीं, बल्कि पिछले सप्ताह जारी सरकारी आंकड़ों ने बताया है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की माने तो गुजरे चार वर्षों में देश भर में 715 बाघों की संख्या बढ़ी। इस समय कुल 3682 बाघ देश में हैं। इसके साथ ही ये भी बताया गया है कि तेलंगाना का कवल टाइगर रिजर्व, मिजोरम का डम्पा टाइगर रिजर्व क्षेत्र, अरुणाचल प्रदेश का कमलेंग, ओडिशा का सतकोसिया और सहायद्री स्थित बाघ रिजर्व क्षेत्र एकदम बाघ हीन हैं, वहां बाघ विलुप्त हो गए हैं। कुछ असमय मर गए, तो कुछ शिकारियों के शिकार हो गए। हालांकि शिकारियों के हाथों मरे बाघों के संबंध में रिपोर्ट में नहीं बताया गया है। पर, ये तल्ख सच्चाई है जिसे सरकार भी मानती है कि इस वक्त पूरे देश में बाघों का शिकार करने के लिए संगठित गिरोह सक्रिय है। इनका डेरा टाइगर रिजर्व क्षेत्रों के आसपास ज्यादा है। क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में बाघ, शेर, चीते व अन्य जंगली जानवरों के अवशेषों की भारी डिमांड रहती है। ऐसी खबरें भी कई मर्तबा आती हैं कि इनके इन कुकर्मों में फॉरेस्ट कर्मी भी शामिल पाए गए।

गौरतलब है कि वनजीव संरक्षण क्षेत्रों में सबसे ज्यादा सरकारी बजट बीते पचास सालों में बाघों के संरक्षण पर खर्च किया गया। उस हिसाब से देखें तो बाघों के बढ़ोतरी के आंकड़े उतने तसल्ली नहीं देते, जितने देने चाहिए। सालाना करीब 10 से 12 करोड़ रुपये देश के विभिन्न टाइगर रिजर्व में बाघ संरक्षण के लिए खर्च किया जाता है। एक और दुखद खबर है जो बाघ प्रेमियों को खासी चिंतित कर सकती है। दरअसल, कुछ बाघ रिजर्व ऐसे हैं जिनमें मात्र एक-एक ही बाघ शेष बचे हैं। उनमें बंगाल का बक्सा टाइगर रिजर्व, नामदफा रिजर्व, राजस्थान का रामगढ़ विषधारी क्षेत्र, छत्तीसगढ़ का सीतानदी और झारखंड का पलामू टाइगर रिजर्व शामिल हैं। इसके अलावा दर्जन भर टाइगर रिजर्व ऐसे हैं जिनमें भी बाघों की संख्या बस 3 या 4 के आसपास ही बची है। मध्य प्रदेश अब भी प्रथम स्थान पर काबिज है जिसे टाइगर स्टेट का दर्जा प्राप्त है। बताया जाता है कि मध्य प्रदेश बाघ संरक्षण के लिए सबसे अनुकूल प्रदेश है। लेकिन वहीं जब चीतों के संरक्षण की नजर दौड़ती है तो ये तथ्य अपने आप में झूठे लगते हैं, वो इसलिए, कि नामीबिया और आस्टृलिया से लाए गए चीते भी कूनो नेशनल पाके में ही छोड़े गए थे जिनमें अधिकांश अब दम तोड़ चुके हैं।

हिंदुस्तान में बाघ अभ्यारण्य मुहिम सन 1973 में लागू हुई थी जिसे ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ का नाम दिया गया था। जिम्मेदारी ‘राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण’ के कंधों पर रखी गई थी। सन 2018 तक कुल भारत में 50 टाइगर रिजर्व क्षेत्र हुआ करते थे जिसे तीन वर्ष पहले बढ़ाकर 53 कर दिए गए हैं। बढ़ाने के पीछे की मंशा बाघों की संख्या में और इजाफा करना था। हालांकि कुछ जगहों पर बाघों की संख्या अपने आप बढ़ी, उसी को देखते हुए जहां बाघों की चहलकदमी दिखी, सरकार ने उसे बाघ रिजर्व घोषित कर दिया। जबकि, ये बाघ ऐसे थे जो अपना रास्ता भटककर जहां-तहां पहुंचे थे। बाघों की गिनती को लेकर भी कई बार विरोध होता है। पर्यावरणविद् कहते हैं कि बाघों की गणना सही तरीके से नहीं होती। उनकी मांगों को ध्यान में रखकर 2018 में केंद्र सरकार ने आधुनिक तरीकों से बाघों की गणना करवाई, जिसका नजीता ये निकला बाघों की संख्या देशी गणना वाले तरीकों के मुकाबले बढ़ी हुई सामने आई।

हालांकि हिंसक जानवरों जैसे, बाघ, शेर व तेंदुओं की सटीक गणना को लेकर विरोधाभाष की स्थिति अब भी बनी रहती है। बाघ प्रेमी सरकारी आंकड़ों पर ज्यादा भरोसा नहीं करते हैं। पर, इस वक्त बाघों की संख्या बढ़ी है इस पर विश्वास इसलिए किया जा सकता है क्योंकि कुछ टाइगर रिजर्व क्षेत्र ऐसे हैं जहां बाघों की संख्या उम्मीद से कहीं ज्यादा बढ़ी है। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत टाइगर रिजर्व में बाघों की संख्या बीते सात-आठ वर्षों में इस कदर बढ़ गई है जिससे बाघ जंगलों से निकलकर बाहर खेतों और आवासीय क्षेत्रों में भी पहुंचने लगे हैं। जिस कारण कई बाघों ने इंसानों को निवाला भी बना डाला। वहां जंगली क्षेत्रों में बाघों की दहशत बनी हुई है। इसके अलावा लखीमपुर खीरी के दुधवा पार्क में भी बाघों की संख्या अच्छी खासी बढ़ी है। खैर, वहां बाघों का बढ़ना स्वाभाविक हैं क्योंकि वहां प्राकृतिक सौन्दर्यता चारों ओर भरी है और बाघों के रहने का वहां अनुकूल वातावरण भी मौजूद है?

बहरहाल, जांच का विषय जरूरी हो जाता है कि आखिर पांच टाइगर रिजर्व में बाघ खत्म हुए क्यों? साथ ही इस कतार में कई और टाइगर रिजर्व खड़े हैं। वैसे, बाघ संरक्षण में कोई एक दिक्कत नहीं, बल्कि कई हैं जिस कारण बाघ असमय मौत का शिकार हो रहे हैं। कुछ वाजिब कारण तो सभी जानते ही हैं जिनमें प्रमुख तौर पर जंगलों का बेहिसाब कटान, बिगड़ता पर्यावरण, शिकारियों की बढ़ती आमदगी और बाघों के रहने हेतु जलवायु परिवर्तन में लगातार होता बदलाव हैं। मंत्रालय के आंकड़ों की माने, तो साल 2019 में समूचे हिंदुस्तान में बाघों की मृत्यु के 85 प्रत्यक्ष मामले सामने आए जिनमें करीब दर्जन भर मामलों में बाघों के मरने की पुष्टि उनके अंगों के मिलान से हुई। जबकि, इसके पूर्व 2018 में बाघों की मृत्यु के 100 मामले, वर्ष 2017 में 115 मामले और वर्ष 2016 में बाघों की मृत्यु के 122 मामले सामने आए।

कोरोना के दौरान सन 2020-21 में बाघों के मरने की संख्या सर्वाधिक रही। वरना, बाघों के बढ़ने का जो 715 का आंकड़ा केंद्र सरकार ने दर्शाया है उसमें निश्चित रूप से और वृद्धि होती। सन 2018 तक कुल बाघ 2967 थे जो अब 3682 हो गए हैं। कोरोना के दौरान शिकारी बाघों पर कहर बनकर टूटे थे। लॉकडाउन में खूब शिकार किया। दरअसल, वो ऐसा वक्त था जब बंदिशें कम थीं जिसका उन्होंने जमकर फायदा उठाया। बहरहाल, हमारा देश अब भी बाघ संरक्षण क्षेत्र में संसार भर में अव्वल पायदान पर काबिज है। 75 से 80 फीसदी के बीच बाघों का घर भारत में ही है। पर, संरक्षण के लिहाज से मौजूदा कुछ रिपोर्ट सोचने पर मजबूर करती हैं। तीन टाइगर रिजर्व बक्सा, डंपा और पलामू में बाघों के अनुपस्थिति भी सामने आई है और ऐसी संख्या तेजी से अग्रसर है। बिना देर किए सरकार को बाघ विलुप्ता के सही कारणों को खोजना होगा। वरना, भविष्य की आगामी पीढ़ी को वैसे दिन न देखने पड़े, चीतों की तरह बाघों को भी दूसरे देशों से मुंह बोली कीमत पर खरीदकर लाना पड़े।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

हिन्दुस्थान समाचार/मुकुंद

Updated On 29 Sep 2023 4:04 PM GMT
Agency Feed

Agency Feed

Next Story