डॉ. रमेश ठाकुर

बांस का उत्पादन और उससे जुड़ा हस्त निर्मित रोजगार-धंधा अब पहले जैसा नहीं है। बांस के बेंत के हस्तशिल्प प्रोडक्ट आसानी से खोजने से नहीं मिलते। मिलते भी हैं तो बहुत महंगे? जबकि, एक जमाना ऐसा भी था, जब बांस उत्पादन समूचे हिंदुस्तान के कोने-कोने में बड़े पैमाने पर होता था। बांस का विलुप्त होना और उसकी खेती के कम होने में राज्यों व केंद्र सरकार की उदासीनता प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार है। देखते ही देखते बांस की खेती सिमट गई, लेकिन उसे रोकने की कोशिश शासन-प्रशासन ने नहीं की? हालांकि चीन के बाद पूरे विश्व में बांस उगाने में भारत अब भी दूसरे नंबर पर काबिज है। पर, जितना बांस उगाना चाहिए, उतना उगता नहीं? मौजूदा समय में जितना उत्पादन बांस का होता है, उसका एक तिहाई तो पड़ोसी देशों में ही भेज दिया जाता है। एशियाई मुल्कों में बांस-बेंत की भारी डिमांड है जिसमें विशेषकर हिंदुस्तानी बांसों की। अच्छी बात है कि अब बांस की ओर रुझान बढ़ा है।

बांस से निर्मित वस्तुओं की ओर लोगों का आकर्षण क्यों बढ़ रहा है, इसे जानना जरूरी है। दरअसल, दुनिया प्लास्टिक वस्तुओं से तौबा करने लगी है, जिसका विकल्प बांस बन रहा है। इसलिए बांस का बाजार अचानक से बढ़ा है। लोग प्लास्टिक के जगह बांस के इको फ्रेंडली उत्पादों को अपनाने लगे हैं। इसलिए बांस डिमांड में आ गया है। चीन बांस उत्पादन में कई दशकों से अव्वल खिताबी देश है। जहां, रोजमर्रा के सामान जैसे रसोई के बर्तन, फर्नीचर, खिलौने, पेंटिंग, सजावटी सामान और हैंडीक्राफ्ट का प्रयोग बहुत ज्यादा होने लगा है। उसी को देखकर हिंदुस्तान में फर्नीचर व इको फ्रेंडली उत्पादक कंपनियां अब किसानों को बांस की कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की राय देने लगी हैं। निश्चित रूप से इस कदम से पर्यावरण की बेहतरी, किसानों को अच्छा मुनाफा व ग्रामीण स्वरोजगार के तौर पर ‘बांस की खेती’ का अच्छा भविष्य दिखने लगा है। संसार में बांस की कुल 1662 प्रजातियां हैं जिनमें से 130 उच्च कोटि की भारत में होती हैं जिसमें सबसे प्रमुख बंबूसा पॉलीमोरफा, किमोनो बम्बूसा फलकेटा, बंबूसा ऑरनदिनेसी, डेंड्रोकैलेमस स्ट्रीक्स, डेंड्रोकैलेमस हैमिलटन, मेलोकाना बेक्किफेरा, ऑक्लैंड्रा ट्रावनकोर, ऑक्सीटिनेनथेरा थाइरसोस्टेकिस ऑलीवेरी, एबीसिनिका, फाइलोंस्तेकिस व बेम्बूसांइडिस हैं।

मणिपुर और मिजोरम में सबसे अच्छा बांस उगता है। इसके अलावा देश के कुछ मैदानी क्षेत्रों में भी कभी अव्वल दर्जे का बांस उपलब्ध होता रहा है। दूर कहीं न जाएं, उत्तर प्रदेश का बरेली जनपद, जिसे ‘बांस बरेली’ के नाम से जानते हैं। वहां, बांस की खेती कभी बड़े स्तर पर होती थी। लेकिन आज वहां बांस का नामोनिशान तक नहीं है। ऐसे और भी बहुतेरे क्षेत्र हैं, जहां बांस की खेती हुआ करती थी। लेकिन अब एकदम निल-बटे-सन्नाटा? बरेली से सटा जिला पीलीभीत जहां की बांसुरी विश्व प्रसिद्ध रही है। वो बांसुरी वहीं से उगे बांसों से निर्मित होती थी। पर, आज सिर्फ नाम भर की रह गई है बांसुरी परंपरा? इन दोनों जिलों में संयुक्त रूप से बांस, बेंत व नई किस्म की घास की कई ऐसी प्रजातियां थी, जो बहुत जीवट होती थीं। हाल ही में बांस उपयोगिता और आधुनिक युग में उसकी जरूरत को लेकर दर्जनों यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने न्यूयॉर्क में एक साथ मिलकर शोध किया, जिसमें हंगेरियन यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर से संबंध रखने वाले वैज्ञानिक एंजॉय नाथन ने कहा कि बांस के जरिए बायोएथेनॉल, बायोगैस और अन्य बायोएनर्जी उत्पादन भी बन सकते हैं। उनका जोर था कि विश्व के वह देश बांस के उत्पादन को बढ़ाने में फिर विचार करें जहां-जहां बांस का उगना संभव है। उनका इशारा भारत की ओर था।

बहरहाल, हिंदुस्तान बांस की अहमियत को अच्छे से समझता है। आजादी के शुरुआती वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था में ये क्षेत्र बड़ी भूमिका निभाता रहा। पर, आधुनिक चकाचौंध ने बांस की खेतीबाड़ी और निर्मित वस्तुओं से जनमानस के मोह को भंग कर दिया। घरों के बुजुर्ग आज भी बताते हैं कि बांस और बेंत की हस्तशिल्प वस्तुएं गुजरे वक्त में सभी की जीवन शैलियों का अभिन्न अंग होती थी। बांस उत्पादन पर भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की हालिया रिपोर्ट पर गौर करें तो पूरे देश में वार्षिक बांस उत्पादन सिर्फ 3.23 मिलियन टन ही रह गया है। सेवन सिस्टर राज्य आज भी बांस-बेंत के हस्तशिल्प निर्मित उत्पादों पर निर्भर हैं, क्योंकि बांस के जरिए ही वह अपनी अलहदा विशेषज्ञता के लिए लोकप्रिय रहे हैं। वैसे, बांस की खेती के लिए मध्य प्रदेश, असम, कर्नाटक, नगालैंड, त्रिपुरा, ओडिशा, गुजरात, उत्तराखंड व महाराष्ट्र राज्यों की मिट्टी और वहां की जलवायु और मौसम आज भी अनुकूल हैं। प्राचीनकाल से मणिपुर के लोगों ने बेंत और बांस शिल्प का धंधा बड़े पैमाने पर किया। इन राज्यों के लोग आज भी कई उद्देश्यों के लिए विभिन्न डिजाइनों और रूपांकनों के विभिन्न हस्तशिल्प बांस से ही निर्मित करते हैं।

भारतीय परिवेश में बांस को ‘हरा सोना’ कहा गया है, क्योंकि दूसरी फसलों के मुकाबले बांस में आमदनी अच्छी है। कृषि मंत्रालय चाहता है कि किसान फिर से बांस की खेती करें। इसके लिए सब्सिडी और बीमा योजना भी बनाई है। बांस की खेती से 25-30 टन प्रति हेक्टेयर बांस उगता है जो तीन से चार हजार रुपये प्रति टन तक बिकता है। किसान चाहें तो बांस की रोपाई के तीन साल बाद प्रत्येक वर्ष 7 से 8 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर कमा सकते हैं। पर, सबसे बड़ी दिक्कत ये है अब जमीनें बांस की खेती लायक बची नहीं। क्योंकि खेतों में अब बेहताशा खाद, कीटनाशक व अन्य दवाइयों का प्रयोग होने लगा है। किसान अब कम अवधि वाली फसलें उगाते हैं। इसी कारण औषधीय खेती, पेड़ों की खेती, प्रसंस्करण और एग्रो फॉरेस्ट्री की ओर ध्यान नहीं देते। भारत सरकार ने ‘राष्ट्रीय बांस मिशन’ भी गठित किया है जिसके तहत किसानों को बांस के पौधों पर सब्सिडी देना भी आरंभ किया है, बावजूद इसके किसान रुचि नहीं ले रहे।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

हिन्दुस्थान समाचार/मुकुंद

Updated On 23 Sep 2023 3:32 PM GMT
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